Alankar In Hindi (अलंकार) :- अलंकार में अलम्’ और ‘कार’ दो शब्द हैं। अलम्’ का अर्थ है भूषण या सजावट। अर्थात् जो अलंकृत या भूषित करे,वह अलंकार है। स्त्रियाँ अपने साज-शृंगार के लिए आभूषणों का प्रयोगकरती हैं, अतएव आभूषण अलंकार कहलाते हैं। ठीक इसी प्रकार कविता- कामिनी अपने शृंगार और सजावट के लिए जिन तत्वों का उपयोग-प्रयोग करती हैं, वे अलंकार कहलाते हैं।
अलंकार के संबंध में प्रथम काव्यशास्त्रीय परिभाषा आचार्य दण्डी की है-
काव्यशोभाकरान धर्मान् अलंकारन् प्रचक्षेत।
अर्थात् हम कह सकते हैं कि “काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार हैं।”
ध्यान दें-
- अलंकार शब्द की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है जिसका प्रारंभ में उपयोग व्याकरण एवं न्याय शास्त्र में होता था।
- आचार्य ‘भरत‘ ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र में अलंकार को पारिभाषित तो नहीं किया है लेकिन चार अलंकारों उपमा, रूपक, यमक,
दीपक का उल्लेख किया है। - हिंदी के कवि केशवदास अलंकारवादी कवि हैं।
अलंकार- अलंकार वाणी के शृंगार है; भाषा और साहित्य का सारा कार्य- व्यापार शब्द और अर्थ पर ही निर्भर है, अतएव विशिष्ट शब्द-चमत्कार अथवा अर्थ-वैशिष्टय ही कथन के सौन्दर्य की अभिवृद्धि करता है।
अलंकार वर्गीकरण-अलंकार को सर्वप्रथम आचार्य वामन ने वगीकत करने का प्रयास किया और उसे दो वर्गों में बाटा-
- शब्दाअलंकार
- अर्थाअलंकार
1-शब्दाअलंकार :- शब्दालंकार वे अलंकार है, जहाँ शब्द विशेष के ऊपर अलंकार की नर्भरता हो। शब्दालंकार में शब्द विशेष के प्रयोग के कारण ही कोई मत्कार उत्पन्न होता है, उन शब्दों के स्थान पर समानार्थी दूसरे शब्दों को रख देने पर उसका सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। जैसे-वह बाँसुरी की धुनि ज्ञानि परै, कुल-कानि हियो तजि भाजति है।
उपयुक्त काव्य-पंक्तियों में ‘कानि‘ शब्द दो बार आया है। पहले शब्द ‘कानि‘ का अर्थ है ‘कान’ और दूसरे ‘कानि‘ का अर्थ ‘मर्यादा’। इस प्रकार एक ही शब्द दो अलग-अलग अर्थ देकर चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। इस प्रकार का शब्द प्रयोग ‘शब्दालंकार’ कहलाता है। यदि ‘कुल कानि’ के स्थान पर ‘कुल मर्यादा‘ या ‘कुल-मान‘ प्रयोग कर दिया जाय तो वैसा चमत्कार नहीं आ पाएगा।
शब्दाअलंकार के भेद- शब्दाअलंकार के 5 भेद हैं
- अनुप्रास अलंकार
- यमक अलंकार
- श्लेष अलंकार
- वक्रोक्ति अलंकार
- वीप्सा अलंकार
1-अनुप्रास अलंकार
1-अनुप्रास अलंकार परिभाषा- जिस रचना में व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हो, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण- कुल कानन कुंडल मोर पखा,
उर पे बनमाल विराजति है।
इस काव्य-पंक्ति में ‘क‘ वर्ण की तीन बार और ‘ब‘ वर्ण की दो बार आवृत्ति होने से चमत्कार आ गया है।
‘छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।’
इस पंक्ति में अन्तिम वर्ण ‘ट‘ की एक से अधिक बार आवृत्ति होनेसे चमत्कार आ गया है।
‘सुरभित सुन्दर सुखद सुमन तुम पर खिलते हैं।’
इस काव्य-पंक्ति में पास-पास प्रयुक्त ‘सुरभित’, ‘सुन्दर’, ‘सुखद’ और ‘सुमन’ शब्दों में ‘स’ वर्ण की आवृत्ति हुई है।
विभवशालिनी, विश्वपालिनी दुखती है, भय-निवारिणी, शांतिकारिणी सुखकर्ती है।
इन काव्य-पंक्तियों में पास-पास प्रयुक्त शब्द ‘विभवशालिनी’ और ‘विश्वपालिनी’ में अन्तिम वर्ण ‘न’ की आवृत्ति और ‘भय- निवारिणी तथा ‘शांतिकारिणी’ में ‘ण’ की आवृत्ति हुई है।
अन्य उदाहरण: जो खग हौं तो बसेरो करौ मिलि, कालिंदी कूल कदंब की डारन।
(‘क’ वर्ण की आवृत्ति)
कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि।कहत लखन सन राम हृदय गुनि॥
(‘क’ और ‘न‘ की आवृत्ति)
मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमन्त बुलाए॥
(‘म’ और ‘स’ वर्गों की आवृत्ति)
संसार की समरस्थली में धीरता धारण करो। (‘स‘ और ‘घ’ वर्गों की आवृत्ति)
विमल वाणी ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत (‘व’ और ‘क’ वर्ण की आवृत्ति)
तरनि-तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाए। (‘त’ वर्ण की आवृत्ति)
बँदऊ गुरू पद पदुम परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा। ( आप बताये ?)
अनुप्रास अलंकार के भेद- अनुप्रास अलंकार के 5 भेद हैं
(क) छेकानुपास
(ख) वृत्यानुप्रास
(ग) श्रुत्यानुप्रास
(घ) अन्त्यानुप्रास
(ड़) लाटानुप्रासा
(क) छेकानुप्रास-छेक का अर्थ है वाक्-चातुर्य। अर्थात् वाक् से परिपूर्ण एक या एकाधिक वर्षों की आवृत्ति को छेकानुप्रास कहा जाता है।
उदाहरण-
इस करुणा कलित हृदय में,
क्यों विकल रागिनी बजती है।
(उपरोक्त पंक्ति में ‘क’ वर्ण की आवृत्ति क्रम से एक बार अतः छेकानुप्रास है)
अमिय भूरिमय चून चारु।
समन सकल भवरुज परिवारू।
यहाँ म, म, र, र, स, स, रू, रू की आवृत्ति सचेष्ट भाव होने के कारण छेकानुप्रास है।
(ख) वृत्यानुप्रास-जहाँ एक या अनेक व्यंजनों की अनेक बार स्वरूपतः व क्रमतः आवृत्ति हो,वहाँ वृत्यानुप्रास होता है।
उदाहरण-
- कलावती केलिवती कलिन्दजा
- कंकन, किंकिन नपूर धुनि सूनि,
कहत लखनु सन् राम हृदय गुनि - चरन चोट चटकत चकोट
अरि उपसिर वज्जत।
विकट कटक बिछरत वीर,
वारिज जिम गज्जत॥
(ग) श्रुत्यानुप्रास-मुख के उच्चारण स्थान से संबंधित विशिष्ट वर्णों के साम्य को श्रुत्यानुप्रास कहते है।
उदाहरण-
- तेहि निसि में सीता पहँ जाई।
त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई। - पाप प्रहार प्रकट कई सोई,
भरी क्रोध जल जाइ न कोई॥
(घ) अन्त्यानुप्रास-जहाँ पद के अंत के एक ही वर्ण और एक ही स्वर की साम्यमूलक आवृत्ति हो, उसे अन्त्यानुप्रास कहते हैं।
उदाहरण-
गुरु पद मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिय दृग दोष विभंजन।
(ङ) लाटानुप्रास-(लाट का अर्थ है समूह) तात्पर्य भेद से शब्द तथा अर्थ की आवृत्ति की लाटानुप्रास है।
उदाहरण-
पूत सपूत तो का धन संचय।
पूत कपूत तो का धन संचय॥
2. यमक अलंकार
यमक अलंकार परिभाषा :- जब कविता में एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आए और उसका अर्थ हर बार भिन्न हो वहाँ ‘यमक अलंकार होता है।
उदाहरण-
- कहै कवि बेनी, बेनी ब्याल की चुराई लीनी,
रति-रति सोभा सब रति के सरीर की।
पहली-पंक्ति में ‘बेनी’ शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। पहली बार प्रयुक्त शब्द ‘बेनी’ कवि का नाम है तथा दूसरी बार प्रयुक्त ‘बेनी’ का
अर्थ है ‘चोटी’। इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में प्रयुक्त ‘रति’ शब्द तीन बार प्रयुक्त हुआ है। पहली बार प्रयुक्त ‘रति-रति’ का अर्थ है ‘रत्ती के समीप जरा-जरा-सी और दूसरे स्थान पर प्रयुक्त ‘रति’ का अर्थ है-कामदेव की परम सुंदर पत्नी ‘रति‘। इस प्रकार ‘बेनी’ और ‘रति’ शब्दों की
आवृत्ति में चमत्कार उत्पन्न किया गया है।
- काली घटा का घमण्ड घटा
नभ मण्डल तारक वृंद खिले।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में शरद के आगमन पर उसके सौंदर्य का चित्रण किया गया है। वर्षा बीत गई है, शरद ऋतु आ गई है। काली
घटा का घमण्ड घट गया है। ‘घटा’ शब्द के दो विभिन्न अर्थ हैं-घटा ‘=काले बादल‘ और घटा = ‘कम हो गया। ‘घटा’शब्द ने इस पंक्ति में सौन्दर्य उत्पन्न कर दिया है। यह ‘यमक’ का सौंदर्य है।
- भजन कयौ ताते भज्यौ, भज्यौ न एको बार।
दूरि भजन जाते कह्यौ, सो तू भज्यौ गँवार॥
प्रस्तुत दोहे में ‘भजन’ और ‘भज्यौ’ शब्दों की आवृत्ति हुई है। ‘भजन’ शब्द के दो अर्थ हैं ‘भजन’ = ‘भाग जाना। इसी प्रकार भज्यों के भी दो अर्थ हैं। ‘भज्यो‘ = ‘भजन किया’ और ‘भज्यो‘ = ‘भाग गया।
इस प्रकार ‘भजन’ और ‘भज्यौ’ शब्दों की आवृत्ति ने इस दोहे में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। कवि अपने मन को फटकारता हुआ
कहता है-हे मेरे मन! जिस परमात्मा का मैंने तुझे भजन करने को कहा, तू उससे भाग खड़ा हुआ और जिन विषय-वासनाओं से भाग
जाने के लिए कहा, तू उन्हीं की आराधना करता रहा। इस प्रकार इन भिन्नार्थक शब्दों की आवृत्ति ने इस दोहे में सौंदर्य उत्पन्न कर दिया है।
अन्य उदाहरण-
- कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाए बौराए जग, या पाए बौराय॥
(कनक= सोना, कनक = धतूरा)
- माला फेरतजुग भया, फिरा न मनका फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मन का फेर॥
(मनका= माला का दाना, मन का= हृदय का)
- जे तीन बेर खाती थीं ते तीन बेर खाती हैं।
(तीन बेर = तीन बार, तीन बेर = तीन बेर के दाने)
3-श्लेष अलंकार
श्लेश अलंकार परिभाषा:- ‘श्लेष’ का अर्थ है ‘चिपकना’। जहाँ एक शब्द एक ही बार प्रयुक्त होने पर दो अर्थ दें वहाँ श्लेष अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में जहाँ एक ही शब्द से दो अर्थ चिपके हों वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण-
- चरन धरत चिंता करत,
फिर चितवत चहुँ ओर।
‘सुबरन’ को ढूंढत फिरत,
कवि, व्यभिचारी, चोर॥
उपर्युक्त दोहे की दूसरी पंक्ति में ‘सुबरन’ का प्रयोग किया गया है जिसे कवि, व्यभिचारी और चोर-तीनों ढूँढ़ रहे हैं। शब्द ‘सुबरन’ के यहाँ तीन अर्थ हैं।
(क) कवि ‘सुबरन‘ अर्थात् अच्छे शब्द
(ख) व्यभिचारी ‘सुबरन‘ अर्थात् अच्छा रूप-रंग और
(ग) चोर भी ‘सुबरन‘ अर्थात् स्वर्ण ढूँढ़ रहा है। अतएव यहाँ श्लेज अलंकार है।
- ‘मंगन को देखि पट देत बार-बार है।’
इस काव्य-पंक्ति में ‘पट’ के दो अर्थ हैं-
(क) वस्त्र और
(ख) किवाड़।
पहला अर्थ-वह व्यक्ति किसी याचक को देखकर उसे बार-बार ‘वस्त्र’ देता है और दूसरा अर्थ है-वह व्यक्ति याचक को देखते ही दरवाजा बंद कर लेता है। अतएव यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार का सौंदर्य है।
- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।
इस दोहे में पानी को बनाए रखने का आग्रह किया गया है। यह आग्रह मनुष्य से किया गया है। इसलिए यहाँ ‘मानुस’ प्रस्तुत है और ‘मोती’ तथा ‘चून’ अप्रस्तुत है। इस प्रकार यहाँ ‘मानुष’ (प्रस्तुत) और ‘मोती’ तथा ‘चून’ (अप्रस्तुत ) का एक ही धर्म पानी राखिए बताया है।
अन्य उदाहरण-
- मधुवन की छाती को देखो, सूखी कितनी इसकी कलियाँ।
(कलियाँ =(क) खिलने से पूर्व फूल की दशा; (ख) यौवन से पहले की अवस्था)
- जो रहीम गति दीप की,
कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो करै, बढ़े अँधरो होय॥
(बारे = (क) बचपन में (ख) जलाने पर। बढ़े = (क) बड़ा होने पर (ख) बुझने पर
- विमाता बन गई आँधी भयावह।
हुआ चंचल न फिर भी श्यामघन वह।
इस कविता में ‘श्यामधन‘ के दो अर्थ हैं-राम और काले बादल। विमाता कैकेयी के प्रबल आँधी बन जाने पर भी श्यामघन बिखरे नहीं
या राम चंचल नहीं हुए।
- को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के वीर।
इस पंक्ति के वृषभानुजा और हलधर में श्लेष है। -वृषभानुजा का अर्थ है राधा और यदि वृषभानुजा शब्द को भंग करके (वृषभ + अनुजा) अर्थ किया जाए तो बैल की बहन होगा।
4-वक्रोक्ति अलंकार
वक्रोक्ति अलंकार परिभाषा :- जहाँ बात किसी एक आशय से कही जाए और सुनने वाला उससे भिन्न दूसरा अर्थ लगा दे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
- कैसौ सूधी बात में बरतन टेढ़ों भाव।
वक्रोक्ति तासों कहै सही सबै कविराय॥ - को तुम? है घनश्याम हम, तो बरसो कित जाय।
नहि, मनमोहन है प्रिये, फिर क्यों पकरत पाय।।
5-वीप्सा अलंकार
वीप्सा अलंकार परिभाषा :- जब अत्यन्त आदर के साथ एक शब्द की अनेक बार आवृत्ति हो तो वहाँ वीप्सा अलंकार होगा-
- एक शब्द बहुत बार जहँ, अति आदर सो होइ।
ताहि वीपसा कहत हैं कवि कोविद सब कोड़।।
उदाहरण-
हा! हा!! इन्हें रोकन को टोक न लगावा तुम
यहाँ हा! की पुररुक्ति द्वारा गोपियों का विरह जनित आवेग व्यक्त होने से वीप्सा अलंकार है।
2-अर्थालंकार अलंकार:- कविता में जब भाषा का प्रयोग इस प्रकार किया जाता है कि अर्थ में समृद्धि और चमत्कार उत्पन्न हो तो उसे अर्थालंकार कहते हैं। अर्थालंकारों सादृश्य प्रधान अलंकार मुख्य है।
अर्थाअलंकार के भेद-
- उपमा अलंकार
- रूपक अलंकार
- उत्प्रेक्षा अलंकार
- अतिशयोक्ति अलंकार
- अन्योक्ति अलंकार
- संदेह अलंकार
- भ्रांतिमान अलंकार
- दीपक अलंकार
- विभावना अलंकार
- अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार
- प्रतीप अलंकार
- व्यतिरेक अलंकार
- स्मरण अलंकार
- उल्लेख अलंकार
- . दृष्टांत अलंकार
- अर्थान्तरन्यास अलंकार
- निदर्शना अलंकार
- समासोक्ति अलंकार
- पर्यायोक्ति अलंकार
- विशेषोक्ति अलंकार
- असंगति अलंकार
- विरोधाभास अलंकार
- .यथासंख्य अलंकार
- व्याजस्तुति अलंकार
- प्रतिवस्तूपमा अलंकार
- तुल्योगिता अलंकार
- तद्गुण अलंकार
- अतद्गुण अलंकार
- मीलित अलंकार
- उन्मीलित अलंकार
- अपहृति अलंकार
- परिसंख्या अलंकार
- मुद्रा अलंकार
- लोकोक्ति अलंकार
- विनोक्ति अलंकार
- सहोक्ति अलंकार
- परिकर अलंकार
- परिरकरांकुर अलंकार
1. उपमा- अत्यंत सादृश्य के कारण सर्वथा भिन्न होते हुए भी जहाँ एक वस्तु या प्राणी की तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी से की जाती
उपमा अलंकार होता है। ‘नीलिमा चन्द्रमा जैसी सुन्दर हैं’ पंक्ति में ‘नीलिमा’ और ‘चन्द्रमा’ दोनों सुन्दर होने के कारण दोनों में सादृश्यता
(मिलता-जुलतापन) स्थापित की गई है।
दो पक्षों की तुलना करते समय उपमा के निम्नलिखित चार तत्वों को ध्यान में रखा जाता है
(क) उपमेय-जिसको उपमा दी जाए अर्थात् जिसका वर्णन हो रहा है, उसे उपमेय या प्रस्तुत कहते हैं। ‘चांद-सा सुंदर मुख’ इस उदाहरण में ‘मुख’ उपमेय है।
(ख) उपमान-वह प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी जिससे उपमेय की तुलना की जाए, उपमान कहलाता है। उसे अप्रस्तुत भी कहते हैं। ऊपर के उदाहरण में ‘चाँद’ उपमान है।
(ग) साधारण धर्म-उपमेय और उपमान का परस्पर समान गुण या विशेषता व्यक्त करने वाले शब्द साधारण धर्म कहलाते हैं। इस उदाहरण में ‘सुंदर’ साधारण धर्म को बता रहा है।
(ग) वाचक शब्द-जिन शब्दों की सहायता से उपमा अलंकार की पहचान होती है। सा, सी, तुल्य, सम, जैसा, ज्यों, सरिस, के समान-आदि शब्द वाचक शब्द कहलाते हैं।
यदि ये चारों तत्व उपस्थित हों तो ‘पूर्णोपमा’ होती है। परतु कई बार इनमें से एक या दो लुप्त भी हो जाते हैं, तब उसे ‘लुप्तोपमा’ उदाहरण
कहते हैं।
उदाहरण-
- मखमल के झूल पड़े, हाथी-सा टीला’।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में टीला उपमेय है, मखमल के झूल पड़े ‘हाथी उपमान है, ‘सा’ वाचक है; किन्तु इसमें साधारण धर्म नहीं है। वह छिपा हुआ है। कवि का आशय है- ‘मखमल के झूल पड़े ‘विशाल’ हाथी-सा टीला।’ यहाँ विशाल जैसा कोई साधारण धर्म अतएव इस प्रकार की उपमा का प्रयोग लुप्तोपया अलंकार’ कहलाता है।
- ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में प्रातःकालीन ‘नम’ उपमेय है, ‘शंख’उपमान है, ‘नीला’ साधारण धर्म है और ‘जैसे’ वाचक शब्द है। यहाँ उपमा के चारों अंग उपस्थित है; अतएव यहाँ पूर्णोपमा अलंकार है।
- ‘काम-सा रूप, प्रताप दिनेश-सा
सोम-सा शील है राम महीप का।
उपर्युक्त उदाहरण में राम उपमेय है, किन्तु उपमान, साधारण धर्म और वाचक तीन हैं- ‘काम-सा रूप’, ‘दिनेश-सा प्रताप’ और सोम-सा’ शील’। इस प्रकार जहाँ उपमेय एक और उपमान अनेक हों, वहाँ ‘मालोपमा’ अलंकार होता है। ‘मालोपमा होते हुए भी वह पूर्णोपमा है क्योंकि यहाँ उपमा के चारों तत्व विद्यमान हैं।
उदाहरण-
- हरिपद कोमल कमल-से।
(हरिपद (उपमेय), कमल (उपमान), कोमल (साधारण धर्म), से (वाचक शब्द)]
- हाय, फूल-सी कोमल बच्ची,
हुई राख की थी ढेरी।
[फूल (उपमेय), बच्ची (उपमान), कोमल (साधारण धर्म), सी (वाचक शब्द)]
- यह देखिए, अरविंद-से शिशुवृंद कैसे सो रहे।
- नदियाँ जिनकी यशधारा-सी बहती हैं अब भी निशि-बासर।
- पीपर पात सरिस मन डोला।
- मुख बाल-रवि-सम लाल होकर, ज्वाल-सा बोधित हुआ।
- कोटि कुलिस-सम वचन तुम्हारा।
व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
2-रूपक अलंकार:- जहाँ गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय में ही उपमान का अभेद आरोप कर दिया गया हो, वहाँ रूपक अलकार होता है।
उदाहरण-
- उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विकसे संत-सरोज सब, हरष लोचन-‘श्रृंग।।
प्रस्तुत दाह में उदयगिरि’ पर ‘मंच’ का, ‘रघुवर’ पर ‘बाल- पतंग’ (सूर्य) का, संतों’ पर ‘सरोज’ का एवं लोचनों’ पर ‘भूगों’ (मौरों) का अभेद आरोप होने से रूपक अलंकार है।
- विषय-वारि मन-मीन भिन्न नहि,
होत कबहुँ पल एक।
इस काव्य-पंक्ति में ‘विषय’ पर ‘वारि’ का और ‘मन’ पर ‘मीन’ (मछली) का अभेद-आरोप होने से यहाँ रूपक का सौन्दर्य है।
- ‘मन-सागर, मनसा लहरि, बूड़े-बहे अनेक।’
प्रस्तुत पंक्ति में मन पर सागर का और मनसा (इच्छा) पर लहर का आरोप होने से रूपक हैं।
- सिर झूका तूने नियति की मान ली यह बात।
स्वयं ही मुझा गया तेरा हृदय-जलजात।।
उपर्युक्त पंक्तियों में हृदय-जलजात’ में ‘हृदय’ उपमेय पर ‘जलजात’ (कमल) उपमान का अभेद आरोप किया गया है।
- शशि-मुख पर चूँघट डाले
अंचल में दीप छिपाए।
यहाँ ‘मुख’ उपमेय में ‘शशि’ उपमान का आरोप होने से रूपक का चमत्कार है।
- ‘अपलक नभ नील नयन विशाल
यहाँ खुले आकाश पर अपलक विशाल नयन का आरोप किया गया है।
अन्य उदाहरण-
पया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों।
(यहाँ ‘चन्द्रमा’ (उपमेय) में ‘खिलौना’ (उपमान) का आरोप है।
चरण-कमल बंदी हरिराई।
(यहाँ ‘हरि के चरणों’ (उपमेय) में ‘कमल’ उपमान का आरोप है)
सब प्राणियों के मत्तमनोमयूर अहानचा रहा।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
3-उत्पेक्षा – जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना अथवा कल्पना कर ली गई है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसके बोधक शब्द हैं- मनो,मानो,मनु, मनहु, जानो, जनु, जनहु, ज्यों आदि।
उदाहरण-
- मानो माई घनघन अन्तरदामिनी।
घन दामिनी दामिनी घन अन्तर,
सोभित हरि-ब्रज भामिनी॥
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में रासलीला का सुन्दर दृश्य दिखाया गया है। रास के समय पर गोपी को लगता था कि कृष्ण उसके पास नृत्य कर रहे हैं। गोरी गोपियाँ और श्यामवर्ण कृष्ण मंडलाकर नाचते या हुए ऐसे लगते हैं मानो बादल और बिजली, बिजली और बादल साथ- साथ शोभायमान हो रहे हों। यहाँ गोपिकाओं में बिजली की और कृष्ण में बादल की सम्भावना की गई है। अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- चमचमात चंचल नयन
विच चूंघट पट छीन।
मानहु सुरसरिता विमल,
जल उछत जुग मीन॥
यहाँ झीने धूंघट में सुरसरिता के निर्मल जल की ओर चंचल नयनों में दो उछलती हुई मछलियों की अपूर्व सम्भावना की गई है। उत्प्रेक्षा का यह सुन्दर उदाहरण है।
- सोहत ओढ़े पीत पट,
स्याम सलोने गात।
मनहुँ नीलमनि सैल पर,
आतप पर्यो प्रभात॥
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में श्रीकृष्ण के सुन्दर श्याम शरीर में नीलमणि पर्वत की ओर उनके शरीर पर शोभायमान पीताम्बर में प्रभात की धूप की मनोरम सम्भावना अथवा कल्पना की गई है।
- उसकाल मारे क्रोध के तनु काँपने उसका लगा।
मानो हवा के जोर से
सोता हुआ सागर जगा॥
उपर्युक्त पंक्तियों में अर्जुन के क्रोध से काँपते शरीर में सागर के तूफ़ान की सम्भावना की गई है।
- कहती हुई यों उत्तरा के,
नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो,
हो गए पंकज नए॥
इन पंक्तियों में उत्तरा के अश्रुपूर्ण नेत्रों (उपमेय) में ओस जल– कण युक्त पंकज (उपमान) की सम्भावना की गयी है। ‘मानो’ वाचक शब्द प्रयुक्त हुआ है।
अन्य उदाहरण-
- मुख बाल रवि सम लाल होकर,
ज्वाल-सा बोधित हुआ।
4. अतिशयोक्ति- जहाँ किसी वस्तु, पदार्थ अथवा कथन (उपमेय) का वर्णन लोक- सीमा से बढ़कर प्रस्तुत किया जाए, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
- भूप सहस दस एकहिं बारा।
लगे उठावन टरतन टारा।।
धनुर्भंग के समय दस हजार राजा एक साथ ही उस धनुष (शिव- धनुष) को उठाने लगे, पर वह तनिक भी अपनी जगह से नहीं हिला। यहाँ
लोक-सीमा से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है, अतएव अतिशयोक्ति अलंकार है।
- चंचला स्नान कर आए,
चन्द्रिका पर्व में जैसे।
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसे॥
नायिका के रूप-सौन्दर्य का यहाँ अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया हैं।
- बालों को खोलकर मत चला करो दिन में
रास्ता भूल जाएगा सूरज !
यहाँ नायिका के काले घने केशों को अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। भला बालों की घनी कालिमा के कारण सूरज रास्ता कैसे भूल सकता है?
अन्य उदाहरण-
- आगे नदियाँ पड़ी अपार,
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार,
तब तक चेतक था उस पार॥
राणा अभी सोच ही रहे थे कि घोड़ा नदी के पार हो गया।) यह यथार्थ में असंभव है।
- हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
लंका सिगरी जल गई, गए निसाचर भाग॥
यहाँ हनुमान की पूँछ में आग लगने से पहले ही लंका के जल जाने का उल्लेख किया गया है जो कि असंभव है।
- वह शर इधर गांडीव गुण से
भिन्न जैसे ही हुआ।
धड़ से जयद्रथ का इधर सिर
छिन्न वैसे ही हुआ।
5. अन्योक्ति- जहाँ अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत का व्यंग्यात्मक कथन किया जाए, वहाँ ‘अन्योक्ति’ अलंकार होता है।
- नहिं पराग नहि मधुर मधु,
नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सों बँध्यो,
आगे कौन हवाल॥
इस पंक्ति में भौरे को प्रताड़ित करने के बहाने कवि ने राजा जयसिंह की काम-लोलुपता पर व्यंग्य किया है। अतएव यहाँ अन्योक्ति है।
- जिन जिन देखे वे कुसुम,
गई सुबीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में,
अपत कँटीली डार॥
इस दोहे में ‘अलि’ (भीर) के माध्यम से कवि ने किसी गुणवान अथवा कवि की ओर संकेत किया है जिसका आश्रयदाता अब पतझड़ के गुलाब
की तरह पत्र-पुष्पहीन (धनहीन) हो गया है। यहाँ गुलाब और भौरे के माध्यम से आश्रित कवि और आश्रयदाता का वर्णन किया गया है।
- स्वारथ सुकृत न सम्र बृथा,
देखि बिहंग विचारि
बाज, पराए पानि परि,
तू पच्छीनु न मारि॥
उपर्युक्त अन्योक्ति में प्रत्यक्ष अर्थ तो यह है कि कवि बाज को समझाते हुए कहता है कि शिकारी के निर्देश पर तू अपनी ही जाति के अपने
बंधु-बांधवों को क्यों मार रहा है? किन्तु वास्तव में वह राजा जयसिंह को हिन्दू राजाओं के साथ युद्ध करने से विरत करना चाहता है। यहाँ
‘बाज’ से आशय राजा जयसिंह से, ‘पच्छीनु’ से आशय हिन्दू राजाओं से और ‘पराए पानि’ से आशय औरंगजेब से है।
- वेन इहाँ नागर बड़े दिन आदर तौ आब।
फूलौ अनफूलौ भयो, गँवई गाँव गुलाब।
इस सुन्दर अन्योक्ति में बड़ा पैना व्यंग्य है। इसमें तीन अर्थ ध्वनित हो रहे हैं, जिनमें एक (प्रत्यक्ष) और दो (अप्रत्यक्ष) मुख्य हैं।
कवि ‘गुलाब’ (प्रतिभाशाली कलाकार अथवा रूप-यौवन संपन्न सुन्दरी) को कह रहा है कि इस गँवारों के गाँव में (असभ्य और संस्कारहीन लोगों को सभा में अथवा सौन्दर्य की सराहना में अयोग्य लोगों की सभा में) तेरा फूलना न फूलना (गुणवान या गुणहीन होना) दोनों बराबर है।
6. संदेह- जहाँ किसी वस्तु को देखकर संशय बना रहे, निश्चय न हो, वहाँ संदेह अलंकार होता है।
उदाहरण-
- तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि।
केशों में निशा ने मुक्तावली सजायी है?
बिखर गयो है चूर-चूर हँ कै चन्द्र कैधों,
कैधों घर-घर दीप-मालिका सुहायी है?
यहाँ दीपमालिका में तारावली, मुक्तावली और चन्द्रमा के चूर्णीभूत कणों का संदेह होता है।
- सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है,
की सारी की ही नारी है,की नारी की ही सारी है? - यह मुख है या चन्द्र हैं।
7. भ्रांतिमान- जब भ्रमवश किसी एक चीज को देखकर उसके समान किसी अन्य वस्तु का भ्रम हो तब भ्रान्तिमान अलंकार होता है।
उदाहरण-
- वृन्दावन विहरत फिरै राधा नन्दकिशोर।
नीरद यामिनी जानि सँग डोलैं बोलें मोर॥
वृन्दावन में राधा-कृष्ण विहार कर रहे हैं। रात में उन्हें सघन मेघ समझ मोर बोलते है और साथ-साथ चलते हैं।
- नाक का मोती अधर की क्रांति से
बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है
सोचता है अन्य शुक यह कौन है?
उर्मिला की नाक में पहने हुए मोती पर ओठों की लाल आभा पड़ती है, जिससे वह अनार का बीज लगता है। तोता उर्मिला की नाक की कोई दूसरा तोता समझने लगता है। इस भ्रम के कारण यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।
8. दीपक- जहाँ उपमेय और उपमान दोनों का एक धर्म कहा जाए, वहाँ दीपक अलंकार होता है। अर्थात् जिस प्रकार एक स्थान पर रखा हुआ
दीपक अनेक वस्तुओं को प्रकाशित करता है।
उदाहरण-
- चंचल निशि उदवस रहें, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज॥ - कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन में करत हैं नैयन ही सब बात। - पिता मरण का शोक न सीता हर जाने का।
लक्ष्मण हा! है शोक गृध के मर जाने का।। - मुख और चन्द्र शोभते है।
9. विभावना- विभावना शब्द का अर्थ है-(विशेष प्रकार की कल्पना)-जहाँ बिना कारण के ही कार्य हो जाये वहाँ विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण-
- बिनु पद चले सुने बिनु काना। कर बिनु करम करे विधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बाणी वकता, बड़ जोगी
(यहाँ पैर के बिना चलना, कान के बिना सुनना और बिना हाथ के कार्य होना, इत्यादि कार्य बिना कारण ही सम्पादित हो रहे हैं।)
- दुख इस मानव आत्मा का रे नित का मधुमय भोजन।
दुख के तम को खा-खाकर, भरती प्रकाश से वह मन॥-सुमित्रानंदन पंत
इस पद्य में ‘तम’ खा कर प्रकाश से भरने का वर्णन किया गया है। विरुद्ध कारण से कार्य का संपादन होता है।)
10. अप्रस्तुत प्रशंसा- जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) का वर्णन करते हुए प्रस्तुत का कथन होता है, वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है।
उदाहरण-
- सागर की लहर-लहर में है हास स्वर्ण-किरणों का। सागर के
अन्तस्तल में अवसाद अवाक कणों का।।
यहाँ अप्रस्तुत सागर के वर्णन से प्रस्तुत धीर, वीर, गंभीर व्यक्ति का वर्णन किया गया है)
- स्वारथ सुकृत न स्रम वृथा, देखु विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पँछीन न मारि॥
11. प्रतीप- उपमेय को उपमान बना देना ही प्रतीप अलंकार है।
उदाहरण-
- उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम।
यहाँ प्रसिद्ध उपमेय राम के शरीर की नीलिमा को उपमान बताया गया है।
12. व्यतिरेक- उपमेय की उपमान से अधिकता का अथवा उपमान की न्यूनता का वर्णन ही व्यतिरेक है।
उदाहरण-
- संत हृदय नवनीत समाना, कहा कविन्ह परि कहै न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता, परदुख द्रवहि सुसंत पुनीता।
यहाँ उपमेय संत हृदय के लिए वर्णित उपमान नवनीत को उपमेय से न्यून कथित किया गया है। अतः व्यतिरेक है।
13. स्मरण- जब पूर्व में देखे सुने पदार्थ के सादृश अन्य पदार्थ को देखकर उसकी स्मृति को होना स्मरण अलंकार है।
उदाहरण-
थूहर पलास देखि-देखि के बबूर बुरे,
हाय-हाय मेरे व तमाल सुधि आवै हैं।
14. अल्लेख- एक पदार्थ को अब अनेक प्रकार से वर्णन किया जाय तो उल्लेख अलंकार होता है। यह उल्लेख दो रूपों में होता है-
1. एक ही व्यक्ति द्वारा, 2. अनेक व्यक्तियों द्वारा
उदाहरण-जानति सौति अनीति है,जानत सखी सुनीति।
गुरूजन जानति लाज है प्रीतम जानति प्रीति॥
यहाँ सौत, सखी, गुरूजन तथा प्रिय द्वारा नायिका को विविध प्रकार से दखने के वर्णन में उल्लेख है।
15. दृष्टांत- जहाँ उपमेय वाक्य उपमान वाक्य एवं उनके साधारण धर्मों में यदि बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टांत अलंकार होता है।
उदाहरण- परी प्रेम नंदलाल के मोहि न भावत जोग।
मधुप राजपद पाइकै भीखन माँगत लोग।
16. अर्थान्तरन्यास- अर्थान्तर का अर्थ है अन्य अर्थ का न्यास या रखना। अर्थात् विशेष का सामान्य के साथ तथा सामान्य का विशेष के साथ समर्थन करना अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
उदाहरण- टेढ़ जानि वंदै सब काहू, वक्र चन्द्रमहिं ग्रसै न राहू।
यहाँ द्वितीय वाक्य प्रथम वाक्य के समर्थन में प्रयुक्त हुआ है।
17. निदर्शना- दो पदार्थों का सम्भव या असम्भव सम्बन्ध उनमें सादृश्य की कल्पना कराए तो निदर्शना अलंकार होता है।
उदाहरण-रसवारे प्यारे परम अरुनारे अति ऐन।
कमलन के गुन गहि रहे, नवनागरि तुव नैन।
18. समासोक्ति- जब प्रस्तुत वृत्तान्त के द्वारा अप्रस्तुत वृत्तान्त की प्रतीति हो तो समासोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण- नहिं पराग नहिं मधुरमधु नहिं विकास इहिं काल
अली कली ही सौं विध्यौ, आगे कौन हवाल॥
19. पर्यायोक्ति- किसी पदार्थ का जिस प्रकार से कथन किया जाता है यदि उसे छोड़कर अन्य तरीके से कथन किया जाय तो पर्यायोक्ति होती है।
उदाहरण- फेरि कछुक करि पौरिते फिरि चितई मुसक्याय।
आई मामन लेन तिय, नेहै गई जमाय।
20. विशेषोक्ति- विशेषोक्ति का अर्थ है – विशेष उक्ति अर्थात् विशेषों में कारण के होने पर भी कार्य का न होना वर्णित होता है।
उदाहरण- नेह न नैननि को कहु उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नितप्रति रहैं, तऊ न प्यास बुझाय।
यहाँ जल के नित्यप्रति रहने पर भी नेत्रों की प्यास नहीं बुझाना विशेषोक्ति है।
21. असंगति- इसमें कारण का होना कहीं और कार्य का होना कहीं वर्णित होता है।
उदाहरण-
लागत जो कंटक तिहारे पाँइ प्यारे हाइ,
आई पहिले ही हिय बोधत हमारे है।
यहाँ पैर में काँटा गड़ता है, बिधता है हृदय। अतः असंगति है।
22. विरोधाभास- जहाँ वास्तविक विरोध न होकर विरोध का आभास मात्र हो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण- या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।
यहाँ काले रंग में डूबने से उज्ज्वल होना विरोध कथन है। परन्तु इस विरोध का परिहार हो जाता है जब भक्त ज्यों-ज्यों कृष्ण के प्रति अनुराग करेगा त्यों-त्यों उसमें सात्विक भाव भरता जायेगा।
23. यथासंख्य( क्रम)- जहाँ पूर्व कथित पदार्थों के क्रम का उसी क्रम से अंत तक निर्वाह करने का वर्णन होता है। उसे यथासंख्य अलंकार कहते हैं।
उदाहरण-
अमिय हलाहल मद भरे श्वेत, स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।
यहाँ अमृत, विष, शराब के रंग एवं गुण का क्रमशः वर्णन है। अतः यथासख्य हैं।
24. व्याजस्तुति- जहाँ निन्दा के बहाने स्तुति और स्तुति के बहाने निन्दा वर्णित हो, उसे व्याज स्तुति अलंकार कहते हैं।
उदाहरण- वाउ वचन मूरति अनुकूला। बोलत वचन झरत जनु फूला।
वाणी से फूल झड़ना प्रशंसा से कटु वाणी कहना निन्दापरक अर्थ व्यंजित हो रहा है।
25. प्रतिवस्तूपमा- जब उपमेय एवं उपमान वाक्यों का एक साधारण धर्म शब्दान्तर से कथित हो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।
उदाहरण-
नहिं असत्य सम पातक पुंजा, गिरि समय होहि कि कोटिक गुंजा
जहाँ प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत दोनों वाक्यों में सादृश्य प्रस्तुत किया गया है।
26. तुल्यौगिता- जब अनेक प्रस्तुतों को या अनेक अप्रस्तुतों को एक ही धर्म (साधारण धर्म) से अन्वित किया जाय।
उदाहरण- मंद मंद जब तें भई, चंदमुखी तब चाल।
मन मलीन तब तें भये, मत्त मतंग मराल॥
यहाँ मतंग और मराल का एक धर्म मलीन कथित है। अतः तुल्योगिता है।
27. तद्गुण- अपने गुण का त्याग कर निकटस्थ उत्कृष्ट गुणवाली वस्तु का गुण ग्रहण करना तद्गुण अलंकार है।
उदाहरण- अधर धरत हरि कै परत ओंठ दीठि पट जोति।
हरित बाँस की बांसुरी इन्द्र धनुष रंग होति।
हरे बाँस की बाँसुरी कृष्ण के अधरों का रंग ग्रहण कर अपने रंग का परित्याग करने के कारण तद्गुण है।
28. अतदाण- सम्भव होने पर भी जब कोई वस्तु समीपवर्ती वस्तु का गुण ग्रहण न करे तो अतद्गुण अलंकार होता है।
उदाहरण- चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।
चंदन विषैले सर्पो के संसर्ग में आने पर अपनी शीतलता का गुण नहीं छोड़ते बताया गया है। अतः अतद्गुण है।
29. मीलित- सादृश्य के कारण एक वस्तु में दूसरी वस्तु इस प्रकार मिल जाय कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ज्ञान न रहे। उसे मीलित अलंकार कहते हैं।
उदाहरण- बरन वास सुकुमारता सब विधि रही समाय।
पँखुरी लगी गुलाब की गाल न जानी जाय।
रस, सुगंध और कोमलता की समानता के कारण नायिका के कपोल पर लगी गुलाब की पंखुड़ी का ज्ञान न होना मीलित है।
30. उन्मीलित- एक वस्तु में दूसरी वस्तु के छिप जाने पर किसी कारण विशेष से भेद का ज्ञान होना उन्मीलित अलंकार है।
उदाहरण- मिलि चंदन वेदी रही गोरे मुख न लखात।
ज्यों-ज्यों मदलाली चढ़े त्यों-त्यों उघटत जात॥
गोरे सुख में छिपी हुई चंदन की बिन्दी मदलाली छाने पर प्रकट हो गई। अतः उन्मीलित है।
31. अपह्नति- अपहृति का अर्थ है छिपाया हुआ मूलतः प्रस्तुत को छिपाकर अप्रस्तुत का उस गोप्य पर आरोपण ही अपहृति अलंकार है।
उदाहरण- किंसुक गुलाब कचनार और अनारन की
डारन पै डोलत अंगारन को पुंज है।
32. परिसंख्या- किसी वस्तु के गुणादि को उस वस्तु के अन्य स्थानों से हटाकर एक ही स्थान पर प्रतिस्थापित कर देना परिसंख्या है।
उदाहरण- मूलन ही की अधोगति जहँ केसव गाइय।
होम हुतासन धूम नगर एकै मलिनाइय॥
अधोगति केवल जड़ों की और नगर में मलीनता केवल होम के से होना, परिसंख्या है।
33. मुद्रा- जहाँ वर्ण्य विषय में अर्थान्तर भंगिमा साथ-साथ संज्ञार्थ की अप्रकरणिक व्यंजना का नाम मुद्रा अलंकार है।
उदाहरण- पाण्डव की प्रतिमा सम देखौ अर्जुन भीम महामति लेखौ।
पंचवटी में वृक्षों के प्राकरणिक अर्थ के साथ अर्जन एवं भीमवीर योद्धाओं की व्यंजना के कारण मुद्रा अलंकार है।
34. लोकोक्ति- सादृश्य आदि की सिद्धि के लिए लोक में वर्णित विविध मुहावरों एवं उक्तियों के दृष्टांत को लोकोक्ति अलंकार कहा जाता है।
उदाहरण- इहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं। जे तरजन देखि कुम्हिलाहीं।
यहाँ लोकोपवाद “तरजनी के संकेत से कुम्हड़े की बतिया का सूख जाना’ के कारण यहाँ लोकोक्ति है।
35, विनीक्ति- किसी वस्तु का शोभन या अशोभन बिना, हीन आदि द्वारा जहाँ वर्णित किया जाये वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण- जिमि भानु बिनु दिन प्रान बिनु तनु, चंद बिनु जिमि चाँदनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझिधौं जिय भामिनी।
यहाँ ‘बिन’ के अनेक प्रयोगों द्वारा अयोध्या के तेजहीन का वर्णन विनोक्ति अलंकार है।
36. सहीक्ति- जहाँ सहवाची शब्दों के द्वारा अनेक कार्य-व्यापारों में एक धर्म का वर्णन किया जाय, जहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण- बलु प्रताप वीरता बड़ाई, नाक पिनाकहिं संग सिधाई।
यहाँ बल प्रताप, वीरता प्रतिष्ठा का धनुष नष्ट होने के साथ-साथ नष्ट हो जाना, सहोक्ति अलंकार का सूचक है।
37. परिकर- जहाँ किसी काव्यवाक्य में कोई विशेषण पद साभिप्राय नियोजित हो उसे परिकर अलंकार कहते हैं।
उदाहरण- चक्रपाणि हरि को निरखि असुर जाति भगि दूर
यहाँ हरि का विशेषण चक्रापाणि साभिप्राय कवि द्वारा प्रयोग किया है।
38. परिरकरांकुर- काव्य में जब साभिप्राय विशेष्य प्रयुक्त हो तो परिकरांकुर अलंकार होगा।
उदाहरण- वामा भामा कामिनी कहि बोलो प्राणेस।
प्यारी कहत खिसात नहिं पावस चलत विदेस।
यहाँ प्राणेश एवं प्यारी का कथन साभिप्राय किया गया है। अतः परिकरांकुर है।
अलंकारों में अंतर
(क) यमक और श्लेष- यमक और श्लेष-यमक अलंकार में एक शब्द अनेक बार प्रयुक्त होता है और हर बार उसका अर्थ भिन्न होता है लेकिन श्लेष में शब्द एक बार ही प्रयुक्त होता है लेकिन उसके विभिन्न अर्थ निकलते हैं।
उदाहरण- यमक- कनक कनक तै सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाए बौरात जग, या पाए बौराय।।
यहाँ कनक’ शब्द दो बार दोहराया गया है। लेकिन दोनों बार अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। इसका एक जगह अर्थ निकला है ‘सोना’ और दूसरी
जगह ‘धतूरा’
श्लेष- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती मानुस चून॥
यहाँ ‘पानी’ शब्द में श्लेष है। पानी का अर्थ ‘मोती’ के संदर्भ में
चमक, ‘मानुस’ के संदर्भ में इज्जत तथा ‘चून’ के संदर्भ में जल है।
(ख) उपमा और रूपक- उपमा में उपमेय और उपमान में समानता दिखाई देती है,जबकि रूपक में उपमेय तथा उपमान को एक मान
लिया जाता है। उदाहरण-
- मुख चन्द्रमा के समान सुंदर है –उपमा (उपमेय (मुख) और उपमान (चन्द्रमा) में समानता)
- मुख चन्द्रमा है-रूपक (उपमेय और उपमान एक समान)
(ग) उपमा और उत्प्रेक्षा- उपमा में उपमेय और उपमान में समानता दिखाई देती है, जबकि उत्प्रेक्षा में उपमेय में उपमान की संभावना
की कल्पना की जाती है। जैसे-
- मुख चन्द्रमा के समान सुंदर है-उपमा
- मुख मानो चन्द्रमा है –उत्प्रेक्षा ( उपमेय (मुख) में उपमान (मानो) की कल्पना।
अलंकार महत्वपूर्ण बिन्दु
- काव्य में अलंकारों के प्रयोग से सौंदर्य एवं चमत्कार आ जाता है।
- अलंकारों के दो मुख्य भेद हैं : शब्दालंकार और अर्थालंकार।
- ‘अनुप्रास’ में व्यंजन वर्ण की आवृत्ति होती है।
- ‘यमक’ में शब्द जितनी बार आता है, उतने ही अर्थ निकलते हैं।
- ‘श्लेष’ में शब्द एक ही बार आता है, पर अर्थ अनेक निकलते हैं।
- उपमा और रूपक में उपमान-उपमेय का मेल होता है। ये समानता
- ‘उत्प्रेक्षा’ में संभावना प्रकट की जाती है।
- ‘अतिशयोक्ति’ में बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है।
- ‘अन्योक्ति’ किसी की ओर अप्रत्यक्ष संकेत होता है।
- ‘मानवीकरण’ में बेजान पर चेतना का आरोप किया जाता है।
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