Sanskrit shlok:- आज हम आपको Sanskrit shlok देने जा रहें हैं जो कि अर्थ के साथ होगें और सभी श्लोक बहुत ही प्रेरणादायक, वीरता, धैर्य, परिवार, प्रेम पर आधारित होगें जिनको आप जरूर पढ़े। और याद भी करें। पर आपको श्लोक देने से पहले आपको हम यह बता दे कि श्लोक कहते किसे हैं श्लोक की पहचान आप कैसे करेगें। तो आइये जानते हैं श्लोक (Sanskrit shlok) के बाारे में।
संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथोकथन किया जाता है, श्लोक कहलाता है। श्लोक प्रायः छंद के रूप में होते हैं अर्थात् इनमें गति, यति और लय होती है। छंद के रूप में होने के कारण ये आसानी से याद हो जाते हैं। प्राचीनकाल में ज्ञान को लिपिबद्ध करके रखने की प्रथा न होने के कारण ही इस प्रकार का प्रावधान किया गया था।

100+ Best Sanskrit shlok ( अर्थ सहित संस्कृत श्लोक ) Hindi Meaning
श्लोक ‘अनुष्टुप छ्न्द’ का पुराना नाम भी है। किन्तु आजकल संस्कृत का कोई छंद या पद्य ‘श्लोक’ कहलाता है।
श्लोक का शाब्दिक अर्थ
1. आवाज, ध्वनि, शब्द।
2. पुकारने का शब्द, आह्वान, पुकार।
3. प्रशंसा, स्तुति।
4. कीर्ति, यश।
5. किसी गुण या विशेषता का प्रशंसात्मक कथन या वर्णन। जैसे—शूर-श्लोक अर्थात् शूरता का वर्णन।
100+ Best Sanskrit shlok ( अर्थ सहित संस्कृत श्लोक ) Hindi Meaning
अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अर्थ – अपमान करके देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना, कठोर वचन बोलकर देना और देने के बाद पछ्चाताप होना। ये सभी 5 क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।
प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।
अर्थ – संध्या काल में चन्द्रमा दीपक है, प्रभात काल में सूर्य दीपक है, तीनों लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कूल का दीपक है।
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः।
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम्।।
अर्थ – यदि कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी मदद करें तो उसको अपने परिवार के सदस्य की तरह ही महत्व दें और अपने परिवार का सदस्य ही आपको नुकसान देना शुरू हो जाये तो उसे महत्व देना बंद कर दें। ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमार हो जाये तो वह हमें तकलीफ पहुंचती है। जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है।
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः।।
अर्थ – आप सुख साधन रहित, परिवतर्नहीन, निराकार, अचल, अथाह जागरूकता और अडिग हैं। इसलिए अपनी जाग्रति को पकड़े रहो।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।
अर्थ – हमें अचानक आवेश या जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेक हीनता सबसे बड़ी विपतियों का कारण होती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है। गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
यद्यत्संद्दश्यते लोके सर्वं तत्कर्मसम्भवम्।
सर्वां कर्मांनुसारेण जन्तुर्भोगान्भुनक्ति वै।।
अर्थ – लोगों के बीच जो सुख या दुःख देखा जाता है कर्म से पैदा होता है। सभी प्राणी अपने पिछले कर्मों के अनुसार आनंद लेते हैं या पीड़ित होते हैं।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्।।
अर्थ – निम्न कोटि के लोग सिर्फ धन की इच्छा रखते हैं। मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा रखता है। वहीं एक उच्च कोटि के व्यक्ति के लिए सिर्फ सम्मान ही मायने रखता है। सम्मान से अधिक मूल्यवान है।
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।
अर्थ- घिसने,काटने,तापने और पीटने, इन चार प्रकारों से जैसे सोने का परीक्षण होता है,इसी प्रकार त्याग, शील, गुण,एवं कर्मों से पुरुष की परीक्षा होती है ।
सत्य– सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥
अर्थ- सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव ॥
विद्या राज्यं तपश्च एते चाष्टमदाः स्मृताः ॥
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठके गुणाः ॥
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ॥
बाह्या इमे पठन पञ्चगुणा नराणाम् ॥
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥
वित्तं दानसमेतं दुर्लभमेतत् चतुष्टयम् ॥
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
तथा वेदं विना विप्रः त्रयस्ते नामधारकाः ॥
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
चाणक्य नीति श्लोक
लुब्धमर्थेन गृह्णीयात्स्तब्धमञ्जलिकर्मणा। मूर्खश्छन्दानुरोधेन यथार्थवादेन पण्डितम्॥
– भावार्थ :
लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मुर्ख को उपदेश देकर तथा पण्डित को यथार्थ बात बताकर वश में करना चाहिए ।
कुराजराज्येन कृतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिवृत्तिः। कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कृशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः॥
– भावार्थ :
दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा सुखी कैसे रह सकती है ! दुष्ट मित्र से आन्दन कैसे मिल सकता है ! दुष्ट पत्नी से घर में सुख कैसे हो सकता है ! तथा दुष्ट – मूर्ख शिष्य को पढ़ाने से यश कैसे मिल सकता है !
भगवत गीता श्लोक
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥12.17॥
– भावार्थ :
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है ।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥3.5॥
– भावार्थ :
निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।
रामायण श्लोक
धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् । धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
– भावार्थ :
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः । सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥
– भावार्थ :
सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।
गुरू श्लोक
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् । शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥
– भावार्थ :
विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं ।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
– भावार्थ :
जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार ।
प्रार्थना संस्कृत श्लोक
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्म्बकें गौरी नारायणि नमोस्तुते ॥
– भावार्थ :
जो सभी में श्रेष्ठ है, मंगलमय हैं जो भगवान शिव की अर्धाग्नी हैं जो सभी की इच्छाओं को पूरा करती हैं ऐसी माँ भगवती को नमस्कार करती हूँ ।
या देवी स्तुयते नित्यं विबुधैर्वेदपरागै: । सा मे वसतु जिह्रारो ब्रह्मरूपा सरस्वती ॥
– भावार्थ :
ज्ञान की देवी माँ सरस्वती जिसकी जिव्हा पर सारे श्लोकों का सार है जो बुद्धि की देवी कही जाती है और जो ब्रह्म देव की पत्नी है ऐसी माँ का वास मेरे अन्दर सदैव रहे ऐसी कामना है ।
विद्या संस्कृत श्लोक
नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:। नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥
– भावार्थ :
विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।
गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा। अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥
– भावार्थ :
विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ।
लोकप्रिय श्लोक
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः । नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
– भावार्थ :
मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् । एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥
– भावार्थ :
रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता ।
अगर आपको हमारे द्वारा दिये गये Sanskrit shlok अच्छे लगे हो तो आप हमे कमेंट करके जरूर बताये और आपको द्वारा कोई भी सुझाव हो हमारे लिए तो आप वो भी हमे बता सकते हैं।
Hame yeh salok bahut badiya laga
thank you